पटना : जाति जोड़ती नहीं बल्कि समाज को तोड़ती है। जाति की प्रकृक्ति ही विखंडन और विभाजन करना है। भारत में जाति व्यवस्था ऋग वैदिक कालीन वर्ण व्यवस्था ( व्यवसाय के आधार पर निर्धारण ) उत्तर वैदिक काल के आते आते जाति व्यवस्था (जन्म के आधार पर निर्धारण) में परिवर्तित हो गई थी। आज यह व्यवस्था में तब्दील हो गयी है। जाति व्यवस्था एक सामाजिक बुराई है जो प्राचीन काल से भारतीय समाज में मौजूद है। वर्षों से लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं लेकिन फिर भी जाति व्यवस्था ने हमारे देश के सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखी है।भारतीय समाज में सदियों से कुछ सामाजिक बुराईयां प्रचलित रही हैं और जाति व्यवस्था भी उन्हीं में से एक है। हालांकि, जाति व्यवस्था की अवधारणा में इस अवधि के दौरान कुछ परिवर्तन जरूर आया है और इसकी मान्यताएं अब उतनी रूढ़िवादी नहीं रही है जितनी पहले हुआ करती थीं, लेकिन इसके बावजूद यह अभी भी देश में लोगों के धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन पर असर डाल रही है।यह समाज की एक भयानक विसंगति है जो समय के साथ साथ और प्रबल हो गई। यह भारतीय संविधान में वर्णित सामाजिक न्याय की अवधारणा का प्रबल शत्रु है तथा समय समय पर देश को आर्थिक ,सामाजिक क्षति पहुँचाती है। विडंबना ही है कि देश को आजाद हुए सात दशक से भी अधिक समय बीत जाने के बाद भी हम जाति प्रथा के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाएं हैं। यहां तक की लोकतान्त्रिक चुनावों में भी जाति एक बड़े मुद्दे के रूप में विद्यमान है।निस्संदेह सरकार के साथ साथ हम सभी का उत्तरदायित्व है कि यह विसंगति जल्द से जल्द समाप्त हो।
जाति के आधार पर हम भारत का उत्थान नहीं कर सकते और न राष्ट्रीय चेतना को धूमिल होने से रोक सकते हैं। फिर भी इससे छुटकारा पाना इतना आसान नहीं है। भारतीय समाज का ताना- बाना जाति व्यवस्था पर आधारित है। जब तक समाज में जाति के आधार पर भेदभाव होता रहेगा तब तक आदर्श समाज का निर्माण नहीं हो सकता। जाति प्रथा अगर गलत है तो उस पर परदा नहीं डालना चाहिए। जातीय जनगणना देशभर में होनी चाहिए और सत्य आंकड़े सामने आने चाहिए। भाजपा समेत सभी पार्टियां जो आज विरोध कर रही हैं,आज नहीं तो कल इसका समर्थन करेंगी। भारतीय समाज में आज भी अस्पृश्यता विद्यमान है। समाज के किसी भी वर्ग के साथ अन्याय एवं अत्याचार नहीं होना चाहिए। अनुसूचित समाज के बंधुओं ने बहुत अत्याचार व कष्ट सहन किये हैं, फिर भी उन्होंने अपना धर्म नहीं छोड़ा। उनके साथ समानता का व्यवहार होना चाहिए और उनको आगे बढ़ने का समान अवसर उपलब्ध कराना चाहिए। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि विकास को तभी सार्थक माना जाएगा जब हम अंतिम व्यक्ति के आंसू पोछकर उसके चेहरे पर मुस्कान लाने में सफल होंगे।गांधी जी का मंत्र था कि जब भी कोई काम हाथ में लें तो यह ध्यान में रखें कि इससे गरीब और समाज के सबसे अंतिम या कमजोर व्यक्ति का क्या लाभ होगा?
वर्तमान परिदृश्य में पिछड़ा, अति पिछड़ा और दलित समाज अपने उपर किसी की कृपा नहीं चाहता है। वह समाज में बराबरी का स्थान और सम्मान चाहते हैं। पिछड़े और अति पिछड़े अभी तक पिछड़े हुए हैं क्योंकि इन्हें सभी प्रकार की सुविधा और अवसर नहीं मिल पाया।ये विडंबना ही है कि देश को आजाद हुए सात दशक से भी अधिक समय बीत जाने के बाद भी हम जाति प्रथा के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाएं हैं। जाति व्यवस्था समानता नहीं बल्कि दो वर्गों में वरिष्ठता के सिद्धांत को मानती है, यह लोकतंत्र के विरुद्ध है। जब सभी में ईश्वर का अंश विद्यमान है फिर उनके प्रति नफरत का भाव नहीं रखना चाहिए। अगर वो आर्थिक रूप से पीछे हैं तो इसके लिए जिम्मेदार वह नहीं बल्कि समर्थ भी समाज है। बिहार में हुई जाति आधारित जनगणना के आंकड़ों ने संपूर्ण देश का ध्यान आकृष्ट किया है। जातिगत जनगणना कराने वाला बिहार देश का प्रथम राज्य बन गया है। बिहार में सर्वाधिक 63 प्रतिशत आबादी पिछड़े वर्ग की है। हिन्दू सवर्ण अपेक्षाकृत कम हुए हैं जबकि पिछड़ा वर्ग व अनुसूचित जाति की संख्या में वृद्धि हुई है। अभी 15.52 प्रतिशत सवर्ण हैं। वहाँ अनुसूचित जाति 19.65 प्रतिशत व अनुसूचित जनजाति 01.68 प्रतिशत है। वहीं मुस्लिम 17.7 प्रतिशत हैं। इससे पहले 1931 में जातिगत जनगणना हुई थी। 1931 की जनगणना के अनुसार हिन्दू जनसंख्या जहां 85 प्रतिशत से घटकर 82 प्रतिशत हो गयी है। वहीं मुस्लिम जनसंख्या 14 प्रतिशत से बढ़कर 17.7 प्रतिशत हो गयी है। हिन्दू जातियों में देखें तो केवल यादवों की जनसंख्या में दो प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। वहीं मल्लाह, मुसहर व चमार में 01 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। शेष सभी जातियों की जनसंख्या के प्रतिशत में गिरावट आयी है।कुछ जातियों की संख्या दहाई अंक भी नहीं पार कर रही है।यह गिरावट चिंताजनक है। सोशल मीडिया पर लोग लिख रहे हैं कि आप अगर बिहार में हैं तो सावधान रहिए, या फिर बिहार छोड़ दीजिए।
कम से कम बच्चों को बाहर ही भेज दीजिए। बिहार अब रहने लायक नहीं रहा। ऐसे लोग सामाजिक वैमनस्यता और विघटन को बढ़ावा देना चाहते हैं। भारत के नौ राज्यों में हिन्दू आबादी अल्पसंख्यक हो गई है। मुस्लिमों की जनसंख्या देश में तेजी से बढ़ रही है। उन्हें इसकी चिंता नहीं है। जाति प्रथा को कैसे समाप्त किया जाए इस पर विचार होना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि सबसे पहले उपजातियों को समाप्त किया जाए। क्योंकि इनके बीच आपसी तौर तरीके तथा स्तर में अधिक समानता है। लेकिन राजनीतिक दल जातियों में उप जाति खोज रहे हैं। जातिवाद का विरोध करने वाले सामाजिक व राजनीतिक संगठन भी जातिवाद से ग्रस्त हैं। भाजपा समेत सभी राजनैतिक दल विधानसभा तथा लोकसभा चुनाव के समय जातिगत समीकरण को ही आधार बनाकर प्रत्याशी चयन करते हैं। राजनीतिक दल जातियों में उपजातियां खोजते हैं। वोटों के लिए जातीय सम्मेलन करते हैं। पिछड़ों में अति पिछड़ों की तलाश कर रहे हैं। जाति प्रथा किसी भी रूप में उचित नहीं है। लेकिन जाति के आधार पर आरक्षण, जाति के आधार पर आयोग का गठन, जाति के आधार पर संवैधानिक संस्थाएं, जातीय संगठनों को मान्यता, जाति के आधार पर राजनीति में भागीदारी, जाति के आधार पर विभिन्न संगठनों, मंच,मोर्चा और प्रकोष्ठों का गठन, जाति के आधार पर योजनाओं का निर्माण होता है तो जातीय जनगणना पर आपत्ति नहीं करनी चाहिए। आज जातीय जनगणना की मांग कांग्रेस भी कर रही है। कांग्रेस पार्टी पिछड़ों की समर्थक कभी नहीं रही। पिछड़ों के उत्थान के लिए कांग्रेस ने काम भी नहीं किया। जब मण्डल कमीशन लागू किया गया था। तब भी विपक्ष के नेता के तौर पर राजीव गांधी ने विरोध किया था। कर्नाटक की पिछली कांग्रेस सरकार ने भी जातिगत जनगणना कराई थी, लेकिन उसका आंकड़ा जारी नहीं किया। राजस्थान में भी 2011 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने जातिगत जनगणना कराई थी, लेकिन उसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किये गए। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते साल 2011 में जो आखिरी जनगणना हुई थी, उसमें जातिगत आंकड़े भी दर्ज किये गए थे, लेकिन यह डाटा सार्वजनिक नहीं किया गया। देश में पहली बार बिहार सरकार ने जातिगत आंकड़े जारी किये हैं। अब देखना यह है बिहार सरकार उन जातियों के उत्थान के लिए कोई नीति बनाती है या फिर केवल यह जाति आधारित जनगणना का मुद्दा राजनैतिक स्टंट मात्र बनकर रह जायेगा।
बिहार सहित देश के अन्य राज्यों में भाजपा के सहयोगी दल भी जातिगत जनगणना कराये जाने की मांग कर रहे हैं। इससे भाजपा पर दबाव निश्चित तौर पर बढ़ेगा क्योंकि इतनी बड़ी आबादी को नकारा नहीं जा सकता है। सवर्ण हिन्दू हमेशा ही जातिगत जनगणना के विरोधी रहे हैं। जाति व्यवस्था देश की सबसे बड़ी समस्या है। समस्या से ही समाधान निकालना है। यह सच्चाई प्रकट होनी थी। बावजूद उनकी हिस्सेदारी काफी कम है, आज भी उनके साथ भेदभाव हो रहा है। यदि जाति जनगणना के आंकड़े सही होंगे तो उनके कल्याण के लिए संचालित की जाने वाली योजनाओं के क्रियान्वयन में आसानी होगी। इससे उनकी शैक्षणिक, आर्थिक स्थिति कैसी है, भविष्य में उनके लिए किस तरह की नीतियों की आवश्यकता है, इसके बारे में निर्णय लेने में आसानी होगी। देखा जाये तो भारत के अलावा कोई भी ऐसा देश नहीं होगा जहां इतनी बड़ी संख्या में जाति और उप जाति होंगी। फिर भी सभी जातियों में आपस में एकता थी और आज भी सामाजिक एकता विद्यमान है। वैसे जातीय जनगणना से राजनीति में क्या बदलाव आता है या इसका फायदा किसे मिलता है, यह देखने वाली बात होगी। जात-पात भारतीय जीवन की सबसे सशक्त प्रथा रही है, यहाँ जीवन जाति की सीमाओं के भीतर ही चलता आ रहा है।भारत में असमानता सिर्फ आर्थिक नहीं है, सामाजिक भी है।जिसे दूर करना आवश्यक है।जाति तोड़ने का सबसे अच्छा उपाय है, उच्च और निम्न जातियों के बीच रोटी और बेटी का संबंध।अब सवर्ण, पिछड़ों, अति पिछड़ों और दलितों में जाति की बात नापसंद करने वाले युवाओं की भी बड़ी संख्या है। ये युवा हर समुदाय में हैं और समाज के मत को प्रभावित करते हैं।
आलोक आजाद
सामाजिक कार्यकर्ता