करगहर। मोहर्रम बच्चों, महिलाओं सहित लोगों पर ढाए गए जुल्म व सितम की कभी न भूली जाने वाली दर्द भरी दास्तां है. इस दिन हजरत इमाम हुसैन सहित उनके मासूब बेटे और साथियों को शहीद कर दिया गया था. इस्लामिक साल का पहला महीना मोहर्रम शहादत का महीना माना जाता हैकिसी शायर ने खूब ही कहा है- कत्ले हुसैन असल में मरग-ए-यजीद है, इस्लाम जिंदा होता है हर कर्बला के बाद !कर्बला की जंग सिर्फ जुल्म के खिलाफ थी. कर्बला में हजरत इमाम हुसैन की शहादत ने पूरी दुनिया में इस्लाम का बोलबाला कर दिया. मोहर्रम इस्लामिक साल का पहला महीना कहलाता है. मुस्लिम मजहब में मुहर्रम का बहुत ही अहम है. पैगंबर-ए-इस्लाम हजरत मोहम्मद साहब के नवासे हजरत इमाम हुसैन की शहादत में मुहर्रम मनाया जाता है. इसमें शिया समुदाय के लोग इमाम हुसैन की शहादत को याद कर शोक मनाते हैं. दरअसल, इस दिन को इस्लामिक कल्चर में मातम का दिन भी कहा जाता है. क्योंकि नवासा-ए-रसूल इमाम हुसैन अपने 72 साथियों और परिवार के साथ मजहब-ए-इस्लाम को बचाने, हक और इंसाफ को जिंदा रखने के लिए शहीद हो गए थे. तभी से मुहर्रम मनाया जाने लगा.
10वें दिन रोज-ए-आशुरा मनाया जाता है. इस साल कल 29 जुलाई को आशूरा मनाया जाएगा. इसे मातम का दिन भी कहा जाता है.जब इमाम हुसैन ने पीया शहादत का जाम: जो जुल्म और सितम यजीद और उसके साथियों ने पैगंबर मोहम्मद के खानदान पर किए, उसे शायद ही कोई भूल सकता है. कर्बला में शहीद नवासा-ए-रसूल हजरत इमाम हुसैन के कटे हुए सर की तिलावात को देखकर लोग हैरान रह गए. जब यजीदियों ने इमाम हुसैन के बेटे नन्हे अली असगर को भी नहीं छोड़ा, उसे भी तीरों से छलनी-छलनी कर दिया. मुहर्रम का पूरा महीना खानदाने रसूल की शहादत की बहुत याद दिलाता है. दरअसल बादशाह यजीद ने अपनी सत्ता कायम करने के लिए हजरत इमाम हुसैन और उनके परिवार को बेदर्दी से मौत के घाट उतार दिया था.
मुहर्रम में क्या करते हैं?
मुहर्रम इस्लाम धर्म के लोगों का बहुत बड़ा त्योहार है. इस महीने में लोग लोग रोजे रखते हैं. पैगंबर मुहम्मद साहब के नाती की शहादत तथा करबला के शहीदों की शहादत को याद किया जाता है. कर्बला के शहीदों ने इस्लाम मजहब को नया जीवन प्रदान किया था. कई लोग इस माह में पहले 10 दिनों के रोजे रखते हैं. इस दिन जगह-जगह लोगों को पानी, शरबत, लस्सी पिलाई जाती है. गरीबों में खाना भी तकसीम किया जाता है. रोज-ए-आशुरा के दिन शिया समुदाय के लोग मातम भी करते हैं. लेकिन सुन्नी समुदाय के लोग मातम को गलत मानते हैं.क्या है मोहर्रम का इतिहास:मुहर्रम के महीने में इमाम हुसैन शहीद हो गए थे. मोहर्रम का इतिहास कर्बला की कहानी से जुड़ा हुआ है. हिजरी संवत 60 में आज के सीरिया को कर्बला के नाम से जाना जाता था. तब यजीद इस्लाम का खलीफा बनना चाहता था और उसने सबको अपना गुलाम बनाने जुल्म करना शुरू कर दिया. यजीद के जुल्म और तानाशाही के सामने पैगम्बर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और उनके भाई नहीं झुके और डटकर मुकाबला किया. ऐसे कठिन वक्त में परिवार की हिफाजत के लिए इमाम हुसैन मदीना से इराक जा रहे थे, तो यजीद ने उनके काफिले पर हमला कर दिया. जहां यजीद ने हमला किया, वो जगह रेगिस्तान थी और वहां मौजूद इकलौती नदी पर यजीद ने अपने सिपाही तैनात कर दिए. इमाम हुसैन और उनके साथियों की संख्या महज 72 थी, लेकिन उन्होंने यजीद की करीब 8 हजार सैनिकों की फौज से डटकर मुकाबला किया.
एक तरफ यजीद की सेना से मुकाबला था, दूसरी तरफ इमाम हुसैन के साथी भूखे प्यासे रहकर मुकाबला कर रहे थे. उन्होंने गुलामी स्वीकार करने की बजाय शहीद होना जरूरी समझा. लड़ाई के आखिरी दिन तक इमाम हुसैन ने अपने साथियों की शहादत के बाद अकेले लड़ाई लड़ी. इमाम हुसैन मोहर्रम के दसवें दिन जब नमाज अदा कर रहे थे, तब यजीद ने उन्हें धोखे से मार दिया. यजीद की भारी भरकम फौज से लड़कर इमाम हुसैन ने शहादत का जाम पी लिया।इमाम हुसैन ने दिया इंसानियत का पैगाम: इस घटना के बाद दुनिया में इस्लाम तेजी से फैला. आज सभी मुस्लिम देशों में इमाम हुसैन की याद में मुहर्रम मनाया जाता है. 10 मोहर्रम को पैगंबर-ए-इस्लाम के नवासे (नाती) हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद ताजा हो जाती है. दरअसल, कर्बला की जंग में हजरत इमाम हुसैन की शहादत हर मजहब के लोगों के लिए मिसाल है. यह जंग बताती है कि जुल्म के आगे कभी नहीं झुकना चाहिए, चाहे इसके लिए सिर ही क्यों न कट जाए. मुहर्रम का महीना कुर्बानी, मातम और भाईचारे का महीना है, क्योंकि हजरत इमाम हुसैन रजि. ने अपनी कुर्बानी देकर पुरी इंसानियत को यह पैगाम दिया है कि अपने हक को माफ करने वाले बनो और दूसरों का हक देने वाले बनो.
सुन्नी मुस्लिम नहीं करते मातम