आरा। नारी-शक्ति 21वीं सदी के समकालीन समय का बेहद गंभीर विषय है। इसके साथ नारी जाति के सर्वांगीण विकास एवं समग्र मुक्ति के सपने से जुड़े हुए हैं। यह महिलाओं के लिए स्वतंत्रता, समानता, बंधुता, न्याय एवं मनोसामाजिक शक्ति की माँग करता है। इसके साथ ही, हमारे समाज में सशक्तीकरण का मुद्दा भी जुड़ा हुआ है; क्योंकि कोई भी समाज अपनी आधी आबादी को उपेक्षित, पीड़ित एवं वंचित रखकर अपना सम्पूर्ण विकास नहीं कर सकता है। नारी की उन्नति या अवनति पर ही राष्ट्र की उन्नति या अवनति निर्धारित होता है। समाज में नारी की स्थिति जितनी मजबूत होगी, समाज उतना ही विकसित और प्रभावपूर्ण होगा, क्योंकि महिलाएँ समाज की लगभग आधी जनशक्ति (जनगणना 2011 के अनुसार 48.5 प्रतिशत) हैं। आज भी समाज में महिलाओं की स्थिति सोचनीय एवं चिंतनीय है। उन्हें धर्म, रीति-रिवाज, मान-मर्यादा के नाम पर पुरुषों की तुलना में कम समझा जाता है, बल्कि वस्तु समझने की मानसिकता है और मानव न मानकर उनके शारीरिक एवं मानसिक शोषण के मामले दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहे है और यहा तक की निर्णय प्रक्रिया में उनकी भागीदारी समुचित नहीं मिल पा रही है।
कोई भी समाज महिलाओं को हाशिये पर रखकर आगे नहीं बढ़ सकता। महिलाएँ मानसिक एवं बौद्धिक स्तर पर पुरुषों के बराबर होती है, लेकिन उनके खिलाफ हो रहे लैंगिक पूर्वाग्रह, पक्षपात एवं हिंसा के कारण समाज में अपनी योग्यता सिद्ध नहीं कर पाती है और हाशिये पर ढ़केल दी जाती है। इन महिलाओं में दलित, अनुसूचित जाति एवं जनजाति की महिलाओं की स्थिति तो बहुत ही दयनीय है। समाज के इस वर्ग की समस्याओं एवं समाज की आकांक्षाओं के प्रेरणा स्तर को यथासंभव उठाना अती आवश्यक है। सामान्य वर्ग की महिला हो या आदिवासी समाज की महिला हो समाज का कोइ भी वर्ग की महिला जो हाशिये पर खड़ी है, उसे मानसिक शक्ति प्रदान करना और समाज की मुख्य-धारा में लाना ही मुख्य कार्य है।
यातना और शोषण की शिकार रही महिलाओं के उत्थान हेतु प्रयास 1903 में अमेरिका में ‘वीमैन ट्रेड युनियन’ के गठन के साथ शुरू हुआ। संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा मानवाधिकारों की घोषणा (1948) की गई तो महिलाओं के लिए विश्व स्तर पर समानता की बात उठी। सामाजिक एवं राजनितिक अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा (1966) और सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा (1966) में महिलाओं के समान अधिकारों के लिए उद्धरण दिखाई पड़ता है। 1985 में नैरोबी में सम्पन्न अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में महिला सशक्तीकरण किया गया। ‘‘महिलाओं को पुरुषों के बराबर वैधानिक, राजनैतिक, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में उनके परिवार, समुदाय, समाज एवं राष्ट्र की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में निर्णय लेने की स्वायत्तता हो।’’ भारत में नारी सशक्तीकरण का आशय प्राथमिक रूप से महिलाओं की सामाजिक पृष्ठभूमि एवं आर्थिक दशा में सुधार लाना अनिवार्य हो गया है।
परन्तु इस समस्या का निदान तभी संभव है जब इस समस्या के मुख्य कारण को समझा जा सके, क्या आदिकाल से ही महिला हाशिये पर थी? नहीं तब तो उन्हें पूजा जाता था। पुरुषों के बराबर समानता के सभी अधिकार प्राप्त थे तो फिर इस मानसिक शक्ति का ह्रास कैसे हुआ? इसका उत्तर एक ही है कि जैसे-जैसे उनसे शिक्षा का अधिकार छीना गया वैसे वैसे वे समाज का दलित वर्ग हो या सामान्य वर्ग की महिला मुख्यधारा से अलग थलग हो गई उनकी प्रेरणाशक्ति मिट गई एवं आकांक्षा स्तर शून्य हो गया और वे हाशिये पर चली गई।
हाशिये की महिला के कुछ उदाहरण बेरोजगारी, गरीबी, अस्तित्व पर खतरा, अशक्तता का भावना, रूढ़िवादी सोच, हीन भावना, अत्याचार और शोषण, निर्णय प्रक्रिया का अभाव, कार्यों पर विश्वास की कमी, गृहस्थ कार्यों की पूरी जिम्मेदारी एवं जवाबदेही, परस्पर सहयोग का अभाव आदि। नारी सशक्तीकरण का तात्पर्य महिलाओं के अंदर विद्यमान उन प्रतिभाओं एवं क्षमताओं का विकास करना, जिससे वे अपनी अस्मिता की रक्षा स्वयं कर सके। ऐसा नहीं कि महिलाओं में प्रतिभा एवं क्षमता की कमी है, बल्कि सामाजिक व्यवस्था ने उन्हें उपेक्षित कर रखा है और जनजातीय समाज भी इससे अछुता नहीं है। जनजातीय समाज में स्त्रियों ने पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर कार्य करने का प्राचीन परम्परा को वर्तमान समय तक अस्तित्व में बनाये रखा है।
परम्परागत रूप से आदिवासी समाज में महिला एवं पुरुष समान तरह से सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दायित्व का निर्वहण करते हैं। सामाजिक रूप से जनजातीय महिलाओं की स्थिति अन्य समाज की स्त्रियों की अपेक्षा ज्यादा ही अच्छी है। जहाँ कन्या जन्म को भार स्वरूप नहीं माना जाता है और कन्या जन्म पर भी उतनी ही खुशियाँ मनायी जाती है जितना बालक के जन्म पर। आर्थिक विकास के विभिन्न क्षेत्रों में उनका योगदान एवं भागीदारी सराहनीय है। जब तक जनजातीय महिलाओं को सामाजिक रूप से सशक्त नहीं बनायेंगे, तब तक सम्पूर्ण जनजातीय समाज प्रगति के पथ पर अग्रसर नहीं हो पाएगा।
इसके लिए जनजातीय महिलाओं हेतु सकारात्मक रूप से सतत् प्रयास करते रहना होगा। तत्पश्चात सफलता की ओर हमलोग अग्रसर हो सकते हैं। यद्यपि सशक्तीकरण एक दिन की बात नहीं है, महिलाओं को विशेषकर जनजातीय महिलाओं को सशक्त करने के लिए काफी लम्बे समय तक सतत् प्रयास की आवश्यक्ता है। क्योंकि जनजातीय महिलाएँ प्रत्येक क्षेत्र जैसे शिक्षा, आर्थिक निर्भरता, स्वास्थ्य आदि सभी क्षेत्रों में पिछड़ी हुई है। महिला साक्षरता दर की कमी के कारण जनजातीय महिलाएँ अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं होगी तब तक उनका सशक्तीकरण संभव नहीं है। वस्तुतः जनजातीय महिलाएँ काफी संख्या में आज भी निरक्षर है। उनकी निरक्षरता उनके सशक्तीकरण में सबसे बड़ा अवरोधक है।
भारत में दलित वर्ग की महिलाएँ अन्य वर्गों की महिलाओं की तुलना में अधिक शोषित है। समाज में दलित महिलाएँ अधिकांश अशिक्षित, आर्थिक तंगी एवं रूढ़ी, आर्थिक और सामाजिक परम्पराओं से त्रस्त होती है। ये ऐसे पेशे से जुड़ी होती है। जिसे समाज हेय दृष्टि से देखता है, जैसे शौचालय, साफ-सफाई करना, नाला-सफाई, सड़क पर झाड़ू लगाना आदि। इन औरतों को घरों में और पारम्परिक रोजगार क्षेत्रों में भेदभाव का दंश झेलना पड़ता है। इस समाज में लड़कियां को कम उम्र में विवाह यानी बाल-विवाह कर दिया जाता है। पति अधिकांशतः नशाखोरी और शराब में कमाई डुबो देता है। फलतः महिलाएँ अधिकांशतः कम उम्र में ही विधवा हो जाती है। दलित वर्ग की महिलाओं के लिए देवदासी प्रथा के नाम पर दलित महिलाओं का सामाजिक, मानसिक और शारीरिक शोषण किया जाता है। पूर्व काल से देवदासी प्रथा के लिए ढ़केली जाती रही है। चूँकि सामाजिक व्यवस्था ने सिर्फ अछूत महिलाओं के लिए देवदासी प्रथा को व्यवस्थित किया। अतः लैंगिक समानता का सिद्धांत संविधान ने अपने उद्देशिका, मौलिक अधिकारों, मौलिक कर्तव्यों, मानवाधिकारों और नीति-निदेषक तत्वों में प्रतिष्ठापित है। संविधान न केवल महिलाओं को समानता प्रदान करता है, अपितु राज्य को महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक भेद के उपाय अंगीकार करने के अधिकार भी देता है।
महिलाओं और बच्चों की नोडल एजेंसी होने के कारण महिला और बाल विकास मंत्रालय, भारत सरकार महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने एवं उनके समाधान के लिए समग्र रूप से काम करता है। लिंग आधारित मनोसामाजिक भेदभाव के बारे में विचार करते हैं तो यह घर से ही प्रारंभ हो जाते हैं। लड़के-लड़कियों के जन्म, खान-पान, पालन-पोषण, उठने-बैठने, बाहर आने-जाने, कार्य-प्रणाली, स्वास्थ्य आदि के बारे में किया जाने वाला भेदभाव उनके भावी जीवन के प्रमुख अवसरों पर प्रतिकूल असर डालता है। यह स्त्री-पुरुष के बीच गहरी असमानता को जन्म देता है, महिलाओं को हीन-भावना एवं कुंठाओं से ग्रस्त करता है। इस तरह की लैंगिक असमानता हमारे परिवार, समुदाय, समाज और देश की प्रगति के लिए ठीक नहीं है। नागरिक होने के नाते हम सबका नैतिक दायित्व है कि सकारात्मक सोच के साथ मिलजुल कर लैंगिक असमानता की मनोसामाजिक तस्वीर को बदलने का निरंतर प्रयास करना चाहिए और सामाजिक सूचकों जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा एवं आर्थिक अवसरों आदि में समान अवसर मिले। फलतः महिलाओं को समाज के मुख्य धारा में लाने का समुचित मौका दिया जाये।